Election Result 2024: राजस्थान के लोकसभा चुनाव परिणाम ने चौंकाया, जानें कांग्रेस की चुनावी रणनीति में क्या खास रहा और बीजेपी कहां पिछड़ी?
लोकसभा चुनाव 2024 के परिणाम हर किसी को चौंकाने वाले रहे हैं। फिर चाहे वो भाजपा-कांग्रेस हो या अन्य दल। इस बार परिणामों में राजस्थान-उत्तरप्रदेश सहित कई राज्यों ने राजनीतिक समीकरणों की पुरानी परिभाषा को बदल कर रख दिया है।
सबसे पहले जानेंगे कि राजस्थान में भाजपा ने 11 सीटें गंवा दीं, इसका कारण क्या है? तो वहीं मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से राजस्थान के नतीजे बिल्कुल अलग कैसे? दरअसल चुनाव की शुरुआत से ही भाजपा के नेता से लेकर कार्यकर्ता ओवर कॉन्फिडेंस में रहे। राजस्थान को भाजपा का गढ़ होने का मिथक पाल लिया। स्थानीय मुद्दे बजाय राष्ट्रीय मुद्दों के भरोसे रहे। यहां की जातिगत खांटी राजनीति को समझ कर सुलझाने वाला कोई नेता नहीं था। इससे परंपरागत राजनीतिक समीकरण बिगड़ गए। 1 मार्च को भाजपा की लोकसभा प्रत्याशियों की पहली सूची आने के साथ जाट-राजपूत विवाद की जातिगत कहानी शुरू हो गई। लगातार चुनाव जीत रहे चूरू सांसद राहुल कस्वां का टिकट काटना भाजपा के लिए 'कोढ़ में खाज' बना। इसके बाद अलग-अलग इलाकों में पूरा चुनाव जाति केंद्रित हो गया। इस बात को समझकर डैमेज कंट्रोल करने वाला नेता भी पार्टी में नहीं था। बल्कि जीत के अति विश्वास में इस आग को और भड़का दिया। इस कारण कई सीटें भी हारे। जाट-राजपूत विवाद न सिर्फ चूरू बल्कि पूरे राजस्थान में फैल गया। उधर, किरोड़ी मीणा को कैबिनेट में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी नहीं मिलने से अपमान का मुद्दा भी पूर्वी राजस्थान में हावी रहा।
अब सवाल ये है कि पिछले दो चुनावों (Election Result 2024) से भाजपा लगातार जीत रही थी, इस बार क्या अलग था? दरअसल इस बार भाजपा अधिक प्रयोग नहीं कर पाई। जो प्रयोग किए वो गलत साबित हुए। इसके उलट कांग्रेस ने पूरे कॉन्फिडेंस से चुनाव लड़ा। राजस्थान में पूरे चुनाव का नेतृत्व मुख्यमंत्री भजनलाल ने किया। इनके अलावा कोई नेता प्रदेश में सक्रिय नहीं था। भजनलाल का भी पूरे प्रदेश का राजनीतिक कुल जमा अनुभव पांच महीने का है। वे पहली बार के विधायक हैं और उसके बाद सीधे मुख्यमंत्री। कैबिनेट में कोई ऐसा मंत्री नहीं है, जिसकी प्रदेश स्तर पर पहचान हो। भाजपा के ज्यादातर नेता अपने इलाकों में फंसे थे। भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष सीपी जोशी खुद चुनाव लड़ रहे थे तो पूर्व नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़ अपने इलाके में फंसे थे। वहां भी हार का मुंह देखना पड़ा। पहले दो चुनावों में ऐसा नहीं था। मोदी लहर के साथ पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा की लीडरशिप में चुनाव लड़े गए थे। इस चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पूरी तरह साइड लाइन थीं। झालावाड़ के अलावा वे कहीं सक्रिय नजर नहीं आईं। भाजपा में अनुभवी नेतृत्व की कमी बड़े हार का कारण बनी। इसके उलट कांग्रेस ने तमाम मतभेदों को ग्राउंड पर हावी नहीं होने दिया और मिलकर चुनाव लड़ा। सर्वसम्मति नहीं होने के बावजूद गठबंधन को तीन सीटें दीं और तीनों जीतीं। वसुंधरा राजे पूरे चुनावी सीन से गायब थीं। उनका फोकस बेटे दुष्यंत की झालावाड़ सीट पर ही रहा। भाजपा चुनाव में कैंडिटेट को लेकर कोई प्रयोग नहीं कर पाई थी, जबकि कांग्रेस ने सभी 22 चेहरे बदल दिए। तीन सीटें गठबंधन उम्मीदवारों को दीं। भाजपा के कैंडिटेंट के प्रति एंटीइन्कम्बेंसी तो थी ही उनके पास खुद का विजन और काम भी नहीं था। वे पूरी तरह प्रधानमंत्री मोदी और धर्म के सहारे ही थे।
पार्टी ने भी पूरी तरह मोदी फॉर्मूला लागू किया था। विधानसभा में हाल ही में जीते मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में मतदाताओं ने इस फॉमूले को स्वीकार कर लिया, लेकिन राजस्थान में अलग तेवर अपनाते हुए रद्द कर दिया। यहां विकास और प्रत्याशी के लिए उसने कांग्रेस और निर्दलीय को मौका दिया। राजस्थान के सभी प्रत्याशियों ने मोदी के चेहरे पर ही चुनाव लड़ा, उनका न काम था न विजन। सभाओं में भी मोदी के ही मुखौटे बांटे जाते थे।
राजस्थान में भाजपा की चुनाव हार का एक बड़ा कारण यह भी है कि जातिगत समीकरणों के आगे पार्टी की रणनीति पिछड़ गई। इधर, जातिगत ध्रुवीकरण का सीधा और भरपूर फायदा कांग्रेस को मिला। लगभग हर सीट पर वोट बैंक जातियों में बंटा दिखाई दे रहा था। दौसा, चूरू, बाड़मेर, सीकर, भरतपुर, दौसा-सवाईमाधोपुर जैसी सीटों पर चुनाव जातियों में बंट गया। ऐसे माहौल में भाजपा की रणनीति और तैयारी फीकी पड़ गई। राजपूत वोट बैंक ने इस बार पूरे उत्साह से चुनाव में हिस्सेदारी नहीं निभाई। भाजपा नेताओं से नाराजगी के कारण राजपूत वोट बैंक वोट डालने नहीं निकले। बीजेपी के लिए ये बड़ा डेंट रहा। कांग्रेस ने गठबंधन कर सीटें दूसरे दलों के लिए छोड़ीं, जिससे कांग्रेस को खुद की सीटों पर फायदा पहुंचा।
इसी बीच एक बड़ा सवाल ये भी है कि क्या वसुंधरा राजे की अनदेखी भारी पड़ गई? दरअसल वसुंधरा राजे जनाधार वाली नेता मानी जाती हैं, लेकिन इन चुनावों में कोई जिम्मेदारी नहीं थी। वे अपने बेटे के इलाके में ही सक्रिय रहीं। विधानसभा चुनाव में उनको सक्रिय किया गया था लेकिन बहुमत मिलने के बाद भजनलाल शर्मा को सीएम बनाए जाने और उनकी कैबिनेट के नए चेहरों को शामिल करने की घटनाओं ने पूरे प्रदेश को चौंका दिया था। वसुंधरा राजे व उनके समर्थक माने जाने वाले नेताओं को किनारे कर दिया गया था। राजे और उनके समर्थकों को नजरअंदाज करने से पार्टी को नुकसान हुआ है।
सबसे बड़ी चर्चा इसी बात की है कि क्या अब मुख्यमंत्री को बदला जाएगा। क्योंकि सीएम के तौर पर पूरे राज्य को जिताने की जिम्मेदारी उनकी थी। एमपी और छत्तीसगढ़ में राजस्थान के साथ ही विधानसभा चुनाव हुए थे। वहां भी भजनलाल की तरह सीएम बनाए गए थे। उनकी परफॉर्मेंस काफी अच्छी रही है। ऐसे में भजनलाल शर्मा के सामने आज नहीं तो कल संकट आना तय है। दूसरा, मंत्रिमंडल में भी फेरबदल जल्द देखने को मिलेगा। हालांकि भजनलाल के पक्ष में एक मात्र ये पॉइंट है कि उन्होंने कुछ समय पहले ही काम संभाला है। उन्हें अभी काम करने का अवसर नहीं मिला है, लेकिन उनके गृह जिले भरतपुर में भी पार्टी का चुनाव हारना और इतनी सीटें गंवाने से परफॉर्मेंस पर सवाल उठने तय है।
अब जान लेते हैं कि कांग्रेस की चुनावी रणनीति में क्या खास रहा और बीजेपी कहां पिछड़ी?
बता दें कि राजस्थान में बीजेपी सरकार बनने के बाद पार्टी उत्साहित थी। इस बार भी टारगेट 25 सीटें जीतने का लिया हुआ था। वहीं कांग्रेस ने क्षेत्र में पकड़ रखे वाले विधायकों सहित अच्छे कैंडिडेट्स को मैदान में उतारा। कांग्रेस विधायकों में से मुरारी लाल मीणा, हरीश मीणा और बृजेंद्र ओला जीत गए और केवल ललित यादव हार गए। इससे कांग्रेस को 3 सीटों का फायदा मिला। कांग्रेस की दूसरी रणनीति भी सफल रही। राजस्थान में कांग्रेस ने गठबंधन की सभी सीटें जीत लीं। इनमें आरएलपी के हनुमान बेनीवाल ने नागौर, सीपीआई के अमराराम ने सीकर और बीएपी के राजकुमार रोत ने बांसवाड़ा में बीजेपी को हरा दिया। राहुल कस्वां का टिकट काटना भी बीजेपी को भारी पड़ गया। विधानसभा चुनाव में पार्टी में शामिल कर ज्योति मिर्धा को टिकट दिया। वे विधानसभा चुनाव के बाद इस बार का लोकसभा चुनाव भी हार गईं।पश्चिमी राजस्थान में बीजेपी के बड़े नेताओं ने अपनी राजनीतिक विरासत को बचाने के लिए युवा नेता रविन्द्र सिंह भाटी को बीजेपी में शामिल नहीं होने दिया। इसका नुकसान उन्हें विधानसभा चुनाव में भी हुआ और लोकसभा चुनाव में भी। छोटी सी लड़ाई ने बीजेपी के हाथ से बाड़मेर की सीट छीन ली। सीएम भजनलाल शर्मा ने इस लड़ाई को भांपा जरूर था, लेकिन भाटी को साध नहीं पाए।
दक्षिणी और पूर्वी राजस्थान में एसटी वोट बैंक बीजेपी से खिसका, कांग्रेस ने जीता शेखावाटी : एसटी वोट बैंक के खिसकने की शुरुआत बीजेपी में उस समय से ही हो गई थी, जब पूर्वी राजस्थान के बीजेपी के एकमात्र बड़े नेता किरोड़ीलाल मीणा को भजनलाल सरकार में डिप्टी सीएम नहीं बनाया गया। इसके बाद भी उन्हें अपनी पसंद के मंत्रालय नहीं दिए गए। यही वजह थी कि उन्होंने देरी से पदभार ग्रहण किया। किरोड़ी अपने भाई के लिए टिकट मांग रहे थे। लेकिन उन्हें यहां भी निराशा हाथ लगी। किरोड़ी की उदासीनता और अंदरखाने उनकी नाराजगी ने पूर्वी राजस्थान में बीजेपी को साफ कर दिया। इसी तरह शेखावाटी की तीनों सीटें सीकर, चूरू और झुंझुनूं कांग्रेस गठबंधन के हाथ में आ गई। दक्षिणी राजस्थान में बीजेपी पहले से कमजोर थी। उसका तोड़ निकालने के लिए उन्होंने कांग्रेस के कद्दावर नेता महेन्द्रजीत सिंह मालवीया को बीजेपी में शामिल करवाया। लेकिन कांग्रेस ने भारत आदिवासी पार्टी (बाप) से गठबंधन करके खेल बिगाड़ दिया।