


"तस्मै श्री गुरवे नमः" — यह केवल एक मंत्र नहीं, अपितु उस दिव्य परंपरा का उद्घोष है जो मानव को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाती है। गुरु पूर्णिमा 2025 का यह पावन पर्व, न केवल श्रद्धा का अवसर है, बल्कि आत्म-चिंतन और मार्गदर्शन के प्रति कृतज्ञता का भी दिन है।
गुरु वह दीपस्तंभ हैं जो जीवन के समुद्र में दिशा दिखाते हैं। वे केवल ज्ञान ही नहीं देते, बल्कि आत्मा को जागृत करते हैं। गुरु न हों तो शास्त्रों का अर्थ भी नहीं, साधना की दिशा भी नहीं और जीवन का सार भी नहीं।
गुरु पूर्णिमा का ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्व
यह पर्व आषाढ़ पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है, जब महर्षि वेदव्यास ने वेदों का संकलन कर उन्हें मानव समाज को समर्पित किया। इसलिए यह दिन "व्यास पूर्णिमा" भी कहलाता है। सनातन संस्कृति में इसे गुरु के प्रति समर्पण का सबसे बड़ा दिन माना गया है।
आज की प्रासंगिकता
2025 का यह पर्व हमें यह सोचने का अवसर देता है कि क्या आज हम अपने गुरुओं के प्रति उतनी ही श्रद्धा, शील और समर्पण रखते हैं जितना शिष्यत्व की परंपरा मांगती है? डिजिटल युग में जहाँ सूचनाएँ सहज हैं, वहाँ सच्चे गुरु की पहचान और उनके प्रति समर्पण की भावना पहले से अधिक आवश्यक है।
कैसे मनाएं यह पर्व
अपने गुरु को स्मरण करें, चाहे वे शास्त्रों के ज्ञाता हों, जीवन में मार्गदर्शक माता-पिता हों, या अंतःकरण में विराजमान आत्मगुरु।
उनके बताए मार्ग पर चलने का संकल्प लें।
यदि संभव हो तो गुरु के दर्शन कर, उनका आशीर्वाद प्राप्त करें या कम से कम उनके लिए प्रार्थना करें।
गुरु पूर्णिमा केवल पूजन का दिन नहीं, यह उस अटूट संबंध की पुनः स्थापना है जो आत्मा और परमात्मा के बीच गुरु सेतु के रूप में जुड़ता है। आइए इस गुरु पूर्णिमा पर हम केवल श्रद्धा प्रकट न करें, बल्कि शिष्यत्व के आदर्शों को भी जीवन में उतारें।