


आज का दौर बाजारवाद और उपभोक्तावाद का है। हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में ग्राहक बन गया है—कभी वस्त्रों का, कभी गैजेट्स का, कभी ऑनलाइन कंटेंट का। पर क्या आपने कभी रुककर सोचा है कि इस भागती-दौड़ती बाजार संस्कृति में हम अपनी असली खुशियों और मस्ती को कहीं खो तो नहीं बैठे हैं?
एक समय था जब खुशियां सरल थीं। छत पर पतंग उड़ाना, गर्मियों में बरसात का इंतजार करना, शाम को गली में दोस्तों के साथ खेलना, त्योहारों पर मिल-बैठकर घर का बना खाना खाना—यही सच्चे आनंद के पल होते थे। ना कोई ब्रांड जरूरी था, ना स्टेटस सिंबल। लेकिन अब हर चीज़ बाजार के हिसाब से तौली जा रही है। यहां तक कि बच्चों की मस्ती भी प्ले स्टेशन और मोबाइल गेम्स तक सीमित हो गई है।
बाजार ने हर भावना को एक उत्पाद बना डाला है। प्यार का इज़हार भी अब गिफ्ट पैक में मिलता है, दोस्ती भी महंगे कैफे और क्लब की दीवारों में सिमट गई है। त्योहार भी अब ऑनलाइन शॉपिंग फेस्टिवल में बदल गए हैं। जो दिवाली कभी घर-घर दिए जलाकर पूरे मोहल्ले को रौशन करती थी, वह अब सिर्फ महंगे सजावट के आइटम्स तक सीमित हो गई है।
इस बाजार संस्कृति का सबसे बड़ा असर हमारी मानसिकता पर पड़ा है। लोग अब खुशी को बाहरी चीजों में तलाशते हैं—नई कार, नया फोन, महंगे कपड़े। लेकिन जितनी तेजी से ये चीजें मिलती हैं, उतनी ही तेजी से उनसे मिलने वाली खुशी भी खत्म हो जाती है। इसका नतीजा है—आधुनिक जीवन में बढ़ता तनाव, अकेलापन और अवसाद।
असल बात यह है कि बाजार सुविधाएं दे सकता है, लेकिन जीवन का रस और आत्मीयता नहीं। मस्ती वह होती है जिसमें दिखावा न हो, जिसमें सच्चा अपनापन हो। एक कप चाय पर पुराने दोस्तों से हंसी-मज़ाक, परिवार के साथ बिना किसी खर्च के बिताया गया वक्त—यह सब वह सुख है जिसे कोई भी बाजार खरीदकर नहीं दे सकता।
आज आवश्यकता है कि हम अपनी जड़ों की ओर लौटें। बच्चों को गिल्ली-डंडा, कंचे जैसे देसी खेलों से परिचित कराएं। त्योहारों में दिखावे के बजाय सादगी अपनाएं। सोशल मीडिया से थोड़ा वक्त चुराकर असल लोगों के बीच बैठें।
याद रखिए, बाजार हमेशा नया सामान लाएगा लेकिन सच्ची खुशी पुराने संबंधों और सरल जीवनशैली में ही बसती है। अगर हम समय रहते नहीं संभले, तो बाजार संस्कृति हमें तकनीक से जोड़ते-जोड़ते मानवता से दूर कर देगी। इसलिए अब भी मौका है—चलें उस रास्ते पर जहां मस्ती सच्ची हो, और खुशी खरीदी नहीं, बल्कि महसूस की जाती हो।