


श्रावण शुक्ल सप्तमी, जिसे संत तुलसीदास जयंती के रूप में मनाया जाता है, केवल एक महाकवि की जन्मतिथि नहीं, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक चेतना की पुनर्जागरण-तिथि है। गोस्वामी तुलसीदास न केवल एक भक्त थे, न केवल कवि थे, बल्कि वे उस युग के समाज सुधारक, धर्म पुनर्स्थापक और लोक चेतना के महान वाहक थे।
उनका जन्म ऐसे कालखंड में हुआ जब समाज जातिवाद, अंधविश्वास और बाह्याचारों में उलझा हुआ था। धर्म की धारा शुष्क हो चली थी और आध्यात्मिक मूल्यों की अनदेखी हो रही थी। ऐसे समय में तुलसीदास ने श्रीराम के चरित्र को लोकभाषा अवधी में प्रस्तुत कर धर्म को शास्त्रों की सीमाओं से निकालकर आम जन की झोली में रख दिया।
रामचरितमानस: धर्म को जनता से जोड़ने का महाकाव्य
जब शासकीय, पंडितीय और धार्मिक सत्ता संस्कृत के माध्यम से ज्ञान को सीमित कर रही थी, तब तुलसीदास ने धर्म और दर्शन की गूढ़ बातें रामचरितमानस के माध्यम से गांव-गांव, घर-घर तक पहुँचा दीं। रामचरितमानस केवल एक पौराणिक कथा नहीं, बल्कि नीति, दर्शन, भक्ति और जीवन व्यवहार का ग्रंथ है।
यह ग्रंथ ऐसे समय लिखा गया जब मुग़ल सत्ता के कारण हिंदू संस्कृति असुरक्षित अनुभव कर रही थी। तुलसीदास ने राम को उस कालखंड के सांस्कृतिक आदर्श के रूप में स्थापित कर एक प्रकार से सांस्कृतिक प्रतिरोध की भूमिका निभाई।
समाज सुधार और समभाव की स्थापना
तुलसीदास जात-पांत और भेदभाव के विरुद्ध थे। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा —
“जाति पाँति पूछे नहिं कोय, हरि को भजै सो हरि का होय।”
उनके इस विचार ने धर्म के नाम पर होने वाले सामाजिक विभाजन को चुनौती दी और यह संदेश दिया कि भक्ति और आत्मिक विकास सबके लिए समान रूप से उपलब्ध है। यह विचार आज भी जातीय राजनीति और सामाजिक विघटन के युग में अत्यंत प्रासंगिक है।
तुलसी साहित्य: एक आध्यात्मिक थाती
तुलसीदास केवल रामचरितमानस तक सीमित नहीं रहे। विनय पत्रिका, दोहावली, कवितावली, हनुमान चालीसा आदि ग्रंथों में उन्होंने भक्ति, आत्म-चिंतन, मर्यादा और वैराग्य को आत्मसात करने की प्रेरणा दी। विशेष रूप से हनुमान चालीसा आज भी करोड़ों भारतीयों के जीवन में विश्वास और बल का स्रोत है।
आज के भारत में तुलसीदास की प्रासंगिकता
आज जब समाज उपभोक्तावाद, जातीय विद्वेष, नैतिक पतन और धार्मिक आडंबर की ओर बढ़ रहा है, तुलसीदास के विचार फिर से समाज को दिशा दे सकते हैं। उन्होंने धर्म को केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि आचरण, मर्यादा, प्रेम और सेवा के रूप में देखा।
आज जब भारत 'डिजिटल युग' में है, तब तुलसीदास का यह लोकभाषा में धर्म-संस्कार का मॉडल और अधिक सामयिक हो जाता है — जो कहता है कि संदेश सरल हो, सच्चा हो, और जनमानस तक पहुँचे।