


आज की तारीख हमें एक ऐसे वीर की याद दिलाती है, जिसने मात्र अठारह वर्ष की आयु में हंसते-हंसते फांसी के फंदे को गले लगाया और अमर हो गया—खुदीराम बोस। 11 अगस्त 1908 को, मुजफ्फरपुर जेल में, उनकी आंखों में चमक थी, चेहरे पर संतोष था और होंठों पर “वंदे मातरम” की अनुगूंज। उनकी मुस्कान केवल एक युवा क्रांतिकारी का आत्मविश्वास नहीं थी, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक संदेश थी—कि स्वतंत्रता की कीमत जीवन से भी अधिक है।
समय के साथ कई वीर गाथाएं स्मृतियों में धुंधली हो जाती हैं, लेकिन खुदीराम की कहानी हर बार नई ऊर्जा के साथ लौटती है। आज भी देशभर में उनकी पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि सभाएं आयोजित होती हैं, रक्तदान शिविर लगाए जाते हैं और उनके साहस की चर्चा होती है। बिहार के मुजफ्फरपुर केंद्रीय कारागार में, जहां उन्होंने अंतिम क्षण बिताए, आज भी उनकी स्मृति में पुष्प अर्पित किए जाते हैं। उत्तर प्रदेश से लेकर बंगाल तक, यह दिन युवाओं को प्रेरित करता है कि देशभक्ति केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि जीवन जीने का संकल्प है।
लेकिन इस साल उनकी पुण्यतिथि पर एक अलग बहस भी उठ खड़ी हुई। एक फिल्म में उनके नाम को बदलकर पेश किए जाने पर विरोध की लहर दौड़ गई। यह केवल एक ऐतिहासिक भूल नहीं, बल्कि उस पहचान को चोट है, जिसे पाने के लिए उन्होंने अपना जीवन न्योछावर किया। नाम, स्थान और चरित्र—ये महज अक्षर या भूगोल नहीं, बल्कि किसी व्यक्ति की आत्मा होते हैं। जब इतिहास को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया जाता है, तो यह केवल अतीत का अपमान नहीं होता, बल्कि वर्तमान की चेतना को भी आहत करता है।
खुदीराम बोस का जीवन हमें यह सिखाता है कि देशप्रेम सिर्फ एक भावना नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी है—और यह जिम्मेदारी सच को सच, और नाम को नाम कहने की है। उनकी हिम्मत केवल अंग्रेज़ी साम्राज्य से लोहा लेने में नहीं थी, बल्कि उस विश्वास को जीने में थी कि आज़ादी हर इंसान का जन्मसिद्ध अधिकार है।
आज, जब हम उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, तो यह केवल फूल चढ़ाने या भाषण देने का अवसर नहीं होना चाहिए। यह दिन हमें याद दिलाए कि हमारी पहचान, हमारी संस्कृति और हमारे इतिहास की रक्षा भी उतनी ही जरूरी है, जितनी कभी विदेशी शासन से मुक्ति थी। खुदीराम की मुस्कान आज भी हमें देख रही है—जैसे पूछ रही हो, “क्या तुम अब भी उतने ही साहसी हो, जितना मैंने सोचा था?”