स्वतंत्रता या उच्छृंखलता: युवाओं के बदलते मानक
समाज की चेतना का सबसे सजीव रूप उसका युवा वर्ग होता है। युवाओं में ऊर्जा होती है, नवीनता की खोज होती है और साहस होता है सीमाओं को लांघने का। यही विशेषताएं किसी भी देश और समाज के भविष्य को गढ़ती हैं। लेकिन जब यही युवा दिशा और मूल्यों से कटकर केवल स्वतंत्रता के नाम पर स्वेच्छाचार की ओर बढ़ने लगे, तब यह चिंता का विषय बन जाता है।
Img Banner
profile
Sanjay Purohit
Created AT: 27 जुलाई 2025
22
0
...

समाज की चेतना का सबसे सजीव रूप उसका युवा वर्ग होता है। युवाओं में ऊर्जा होती है, नवीनता की खोज होती है और साहस होता है सीमाओं को लांघने का। यही विशेषताएं किसी भी देश और समाज के भविष्य को गढ़ती हैं। लेकिन जब यही युवा दिशा और मूल्यों से कटकर केवल स्वतंत्रता के नाम पर स्वेच्छाचार की ओर बढ़ने लगे, तब यह चिंता का विषय बन जाता है। आज के भारत में एक बड़ा युवा वर्ग जिस मानसिकता को अपनाता जा रहा है, वह केवल आधुनिकता नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक विचलन की ओर संकेत करता है।

बदलते समय के साथ स्वतंत्र विचार, वैश्विक दृष्टिकोण और तकनीकी दक्षता आवश्यक हो गई है। लेकिन यह भी उतना ही आवश्यक है कि युवा अपने संस्कारों से जुड़े रहें। दुर्भाग्यवश, आज की पीढ़ी आधुनिकता की दौड़ में अपने मूल संस्कारों को या तो भूल चुकी है या उन्हें पिछड़ी हुई सोच मानकर नकार रही है। पहले जहाँ परिवार में बड़ों को प्रणाम करना, गुरु का सम्मान करना, त्याग और संयम को जीवन का आधार मानना सामान्य बात थी, वहीं अब इन्हें पुराने जमाने की बातें समझा जाने लगा है। पूजा, ध्यान, परंपराओं और धार्मिक आयोजनों में भागीदारी भी अब केवल सोशल मीडिया पर ‘स्टोरी’ पोस्ट करने भर की चीज़ बनकर रह गई है।

इसी मानसिकता का दूसरा पहलू पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियों की उपेक्षा है। आज का युवा ‘अपना जीवन जीने’ के अधिकार को सर्वोच्च मानता है, जिसमें माता-पिता, परिवार या समाज के लिए समय या संवेदनाएं नहीं के बराबर बची हैं। संयुक्त परिवारों की अवधारणा लगभग समाप्त हो चुकी है, और एकल परिवारों में भी रिश्तों के संवाद का स्थान मोबाइल और डिजिटल माध्यमों ने ले लिया है। वृद्ध माता-पिता अकेलेपन में जी रहे हैं क्योंकि संतान को अब 'स्वतंत्रता' के नाम पर जिम्मेदारी स्वीकार नहीं करनी। समाज के प्रति सेवा, सहयोग, सहभागिता जैसी बातें अब न तो विचार में हैं, न व्यवहार में।

सबसे चिंताजनक स्थिति तब दिखाई देती है जब युवाओं की जीवन-दृष्टि केवल भोग तक सीमित हो जाती है। जीवन का उद्देश्य अब आत्मविकास, आत्मानुशासन या चरित्र निर्माण नहीं रह गया है, बल्कि वह बन गया है — कैसे अधिक कमाया जाए, कैसे अधिक उपभोग किया जाए, और कैसे अपने शरीर, सुख और स्टेटस को सर्वोच्च बनाया जाए। सेक्स को जीवन की सामान्य अभिव्यक्ति मानकर खुला व्यवहार एक फैशन बन गया है, जबकि संबंधों में स्थायित्व और पवित्रता के मूल्य तेजी से लुप्त हो रहे हैं। विवाह, प्रेम और मित्रता जैसी संस्थाएं अब तात्कालिक सुविधा और मनोरंजन का माध्यम बन चुकी हैं।

विज्ञापन, फिल्मों, वेब सीरीज और सोशल मीडिया की दुनिया ने इस विचारधारा को खुलेआम प्रोत्साहित किया है। वहां यह सिखाया जा रहा है कि यदि तुम अपने इच्छानुसार जी रहे हो, भले ही वह समाज, परिवार या नैतिकता से टकराता हो — तो वही तुम्हारी सफलता है। नतीजतन, युवा मन भटकाव, तनाव, अकेलेपन और भावनात्मक अस्थिरता का शिकार होता जा रहा है, लेकिन उसे यह अहसास नहीं हो रहा कि वह किस दिशा में बढ़ रहा है।

यह स्थिति केवल आलोचना का नहीं, चेतना का विषय है। हमें यह समझना होगा कि स्वतंत्रता का अर्थ स्वेच्छाचार नहीं होता। भारत की सांस्कृतिक परंपरा में स्वतंत्रता को हमेशा कर्तव्य, आत्मनियंत्रण और लोककल्याण के साथ जोड़ा गया है। भगवद्गीता में भी यही शिक्षा दी गई है कि कर्म करो, परन्तु धर्म और विवेक के साथ। स्वतंत्रता तब ही सार्थक है जब उसमें संयम हो, जब वह दूसरों के अधिकारों और समाज की मर्यादा के साथ तालमेल में हो।

इस समस्या का समाधान भी हमारे ही पास है, यदि हम इसे देखना चाहें। शिक्षा व्यवस्था को केवल जानकारी देने वाली प्रणाली न बनाकर चरित्र निर्माण की प्रयोगशाला बनाना होगा। परिवारों को बच्चों के साथ केवल आदेशात्मक संबंध नहीं, संवादशील और सहृदय रिश्ता बनाना होगा। युवाओं को ऐसे प्रेरणास्रोत दिखाने होंगे जो आधुनिक भी हों और मूल्यनिष्ठ भी — जैसे डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, स्वामी विवेकानंद, या आज के कई युवा सामाजिक नवाचारक जो परंपरा और आधुनिकता का अद्भुत संतुलन बनाते हैं। साथ ही, ध्यान, योग, सत्संग और आध्यात्मिक साधना के माध्यम से भी युवा चेतना को आत्मावलोकन और संयम की ओर प्रेरित किया जा सकता है।

निष्कर्ष यही है कि आज का युवा यदि स्वतंत्रता को मर्यादा, उत्तरदायित्व और विवेक के साथ जीना सीख ले, तो वह न केवल अपने जीवन को महान बना सकता है, बल्कि भारत को एक संस्कारित, सशक्त और जागरूक राष्ट्र के रूप में पुनः प्रतिष्ठित कर सकता है। आज आवश्यकता इस बात की नहीं है कि हम युवाओं को रोकें, बल्कि यह कि हम उन्हें दिशा दें। क्योंकि स्वतंत्रता और संस्कार — ये विरोध नहीं, बल्कि एक-दूसरे के पूरक

ये भी पढ़ें
सीएम की घोषणा,कटंगी और पौड़ी बनेगी तहसील,लाड़ली बहना योजना सम्मेलन में शामिल हुए सीएम
...

IND Editorial

See all →
Sanjay Purohit
स्वतंत्रता या उच्छृंखलता: युवाओं के बदलते मानक
समाज की चेतना का सबसे सजीव रूप उसका युवा वर्ग होता है। युवाओं में ऊर्जा होती है, नवीनता की खोज होती है और साहस होता है सीमाओं को लांघने का। यही विशेषताएं किसी भी देश और समाज के भविष्य को गढ़ती हैं। लेकिन जब यही युवा दिशा और मूल्यों से कटकर केवल स्वतंत्रता के नाम पर स्वेच्छाचार की ओर बढ़ने लगे, तब यह चिंता का विषय बन जाता है।
22 views • 2025-07-27
Sanjay Purohit
सावन, हरियाली और श्रृंगार — सनातन संस्कृति की त्रिवेणी
सावन मात्र एक ऋतु नहीं, बल्कि सनातन संस्कृति की आत्मा को छू लेने वाला एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक उत्सव है। यह वह कालखंड है जब आकाश से बूंदें नहीं, वरन् देवी-आशीर्वाद बरसते हैं। धरती माँ का आँचल हरियाली से सज जाता है और स्त्री का सौंदर्य, श्रृंगार और भावनात्मक गहराई अपने चरम पर पहुँचती है।
83 views • 2025-07-25
Sanjay Purohit
जागरूक होता इंसान और सिसकती संवेदनाएँ
हम एक ऐसे दौर में प्रवेश कर चुके हैं जहाँ मनुष्य 'जागरूक' तो है, लेकिन भीतर से 'असंवेदनशील' होता जा रहा है। तकनीक, सूचना और वैज्ञानिक प्रगति ने उसके जीवन को सुविधाजनक अवश्य बना दिया है, परंतु इस यात्रा में उसने बहुत कुछ खोया भी है—खासतौर पर वह सहज मानवीय भावनाएँ जो किसी भी समाज को जीवंत बनाती हैं।
73 views • 2025-07-25
Sanjay Purohit
प्रेरणा – आत्मबल का जाग्रत स्रोत
प्रेरणा – यह एक ऐसा शब्द है, जिसमें सकारात्मकता का असीम बोध समाहित होता है। यह जीवन के सार्थक पहलुओं और उद्देश्यों की ओर निरंतर अग्रसर करती है। प्रेरणा, हमारे प्रयासों को ऊर्जा और सार्थक गति प्रदान करने में एक अदृश्य शक्ति के रूप में कार्य करती है, जो हर ठहराव में भी प्रवाह भर देती है।
77 views • 2025-07-23
Sanjay Purohit
बाजार संस्कृति में गुम होती खुशियां और मस्ती — क्या हम अपनी असली दुनिया भूल रहे हैं?
आज का दौर बाजारवाद और उपभोक्तावाद का है। हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में ग्राहक बन गया है—कभी वस्त्रों का, कभी गैजेट्स का, कभी ऑनलाइन कंटेंट का। पर क्या आपने कभी रुककर सोचा है कि इस भागती-दौड़ती बाजार संस्कृति में हम अपनी असली खुशियों और मस्ती को कहीं खो तो नहीं बैठे हैं?
101 views • 2025-07-17
Sanjay Purohit
श्रावण मास में रुद्राभिषेक का विशेष महत्व: भगवान शिव की कृपा और शांति प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन
हिंदू धर्म में श्रावण मास को भगवान शिव का प्रिय महीना माना गया है। इस मास में विशेष रूप से सोमवार के दिन भक्तगण उपवास रखते हैं, जलाभिषेक करते हैं और रुद्राभिषेक के द्वारा भगवान शिव की कृपा प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। रुद्राभिषेक केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं है, बल्कि यह आध्यात्मिक ऊर्जा जागरण, मानसिक शांति और जीवन में संतुलन लाने का एक सशक्त साधन है।
105 views • 2025-07-16
Sanjay Purohit
सृजन और सावन: प्रकृति, अध्यात्म और जीवन का गहरा संबंध
भारतीय संस्कृति में सावन केवल वर्षा ऋतु भर नहीं है, बल्कि यह जीवन, सृजन और नवचेतना का प्रतीक भी माना गया है। जब आकाश से बरसात की बूंदें धरती पर गिरती हैं, तो मिट्टी की भीनी खुशबू हर दिशा में फैल जाती है और चारों ओर हरियाली बिखर जाती है। हरे-भरे वृक्ष, खिलते पुष्प, और लहराते खेत—सभी जैसे नवजीवन से भर उठते हैं। यह माह पर्यावरण, अध्यात्म और मानवीय भावनाओं में गहरा तालमेल स्थापित करता है।
110 views • 2025-07-15
Sanjay Purohit
ध्रुव तारे की खोज: संतत्व के संकट पर आत्ममंथन
भारतीय जनमानस में संतों का स्थान अनादिकाल से अत्यंत विशेष रहा है। उन्हें केवल धर्मगुरु नहीं, बल्कि ईश्वरतुल्य मान्यता प्राप्त रही। संतों ने समय-समय पर समाज को दिशा दी और जब भी राष्ट्र पर संकट आया, अपने प्राणों की आहुति देने में भी वे पीछे नहीं हटे। संत का व्यक्तित्व उस विराट मौन सरिता की तरह है, जो निरंतर जीवन और जीव को पोषित करती है, स्वयं किसी सत्ता या प्रसिद्धि की इच्छा नहीं रखती।
106 views • 2025-07-11
Sanjay Purohit
शिव और सावन: सनातन धर्म में आत्मा और ब्रह्म का अभिन्न संगम
भारतीय सनातन परंपरा में शिव केवल एक देवता नहीं, बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्मांडीय चेतना के प्रतीक हैं। उन्हीं शिव से जुड़ा सावन मास, साधना, भक्ति और तात्त्विक चिंतन का विशेष समय माना जाता है। यह महीना जहां प्रकृति के जल चक्र से जुड़ा है, वहीं आत्मा और परमात्मा के गूढ़ संबंध को भी उद्घाटित करता है।
129 views • 2025-07-11
Sanjay Purohit
भाषा को बंधन नहीं, सेतु बनाए – संघीय ढांचे की आत्मा को समझे
भारत विविधताओं का अद्भुत संगम है—यहां हर कुछ किलोमीटर पर बोली, संस्कृति और रहन-सहन बदल जाता है। इस विविधता के बीच "भाषा" केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि पहचान, स्वाभिमान और संवैधानिक अधिकारों का प्रतीक बन चुकी है। लेकिन जब भाषा को "राष्ट्रवाद" के चश्मे से देखा जाता है और किसी एक भाषा को अन्य पर वरीयता देने की कोशिश होती है, तब यह लोकतंत्र की आत्मा—संघीय ढांचे—को चुनौती देती है।
91 views • 2025-07-08
...