


समाज की चेतना का सबसे सजीव रूप उसका युवा वर्ग होता है। युवाओं में ऊर्जा होती है, नवीनता की खोज होती है और साहस होता है सीमाओं को लांघने का। यही विशेषताएं किसी भी देश और समाज के भविष्य को गढ़ती हैं। लेकिन जब यही युवा दिशा और मूल्यों से कटकर केवल स्वतंत्रता के नाम पर स्वेच्छाचार की ओर बढ़ने लगे, तब यह चिंता का विषय बन जाता है। आज के भारत में एक बड़ा युवा वर्ग जिस मानसिकता को अपनाता जा रहा है, वह केवल आधुनिकता नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक विचलन की ओर संकेत करता है।
बदलते समय के साथ स्वतंत्र विचार, वैश्विक दृष्टिकोण और तकनीकी दक्षता आवश्यक हो गई है। लेकिन यह भी उतना ही आवश्यक है कि युवा अपने संस्कारों से जुड़े रहें। दुर्भाग्यवश, आज की पीढ़ी आधुनिकता की दौड़ में अपने मूल संस्कारों को या तो भूल चुकी है या उन्हें पिछड़ी हुई सोच मानकर नकार रही है। पहले जहाँ परिवार में बड़ों को प्रणाम करना, गुरु का सम्मान करना, त्याग और संयम को जीवन का आधार मानना सामान्य बात थी, वहीं अब इन्हें पुराने जमाने की बातें समझा जाने लगा है। पूजा, ध्यान, परंपराओं और धार्मिक आयोजनों में भागीदारी भी अब केवल सोशल मीडिया पर ‘स्टोरी’ पोस्ट करने भर की चीज़ बनकर रह गई है।
इसी मानसिकता का दूसरा पहलू पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियों की उपेक्षा है। आज का युवा ‘अपना जीवन जीने’ के अधिकार को सर्वोच्च मानता है, जिसमें माता-पिता, परिवार या समाज के लिए समय या संवेदनाएं नहीं के बराबर बची हैं। संयुक्त परिवारों की अवधारणा लगभग समाप्त हो चुकी है, और एकल परिवारों में भी रिश्तों के संवाद का स्थान मोबाइल और डिजिटल माध्यमों ने ले लिया है। वृद्ध माता-पिता अकेलेपन में जी रहे हैं क्योंकि संतान को अब 'स्वतंत्रता' के नाम पर जिम्मेदारी स्वीकार नहीं करनी। समाज के प्रति सेवा, सहयोग, सहभागिता जैसी बातें अब न तो विचार में हैं, न व्यवहार में।
सबसे चिंताजनक स्थिति तब दिखाई देती है जब युवाओं की जीवन-दृष्टि केवल भोग तक सीमित हो जाती है। जीवन का उद्देश्य अब आत्मविकास, आत्मानुशासन या चरित्र निर्माण नहीं रह गया है, बल्कि वह बन गया है — कैसे अधिक कमाया जाए, कैसे अधिक उपभोग किया जाए, और कैसे अपने शरीर, सुख और स्टेटस को सर्वोच्च बनाया जाए। सेक्स को जीवन की सामान्य अभिव्यक्ति मानकर खुला व्यवहार एक फैशन बन गया है, जबकि संबंधों में स्थायित्व और पवित्रता के मूल्य तेजी से लुप्त हो रहे हैं। विवाह, प्रेम और मित्रता जैसी संस्थाएं अब तात्कालिक सुविधा और मनोरंजन का माध्यम बन चुकी हैं।
विज्ञापन, फिल्मों, वेब सीरीज और सोशल मीडिया की दुनिया ने इस विचारधारा को खुलेआम प्रोत्साहित किया है। वहां यह सिखाया जा रहा है कि यदि तुम अपने इच्छानुसार जी रहे हो, भले ही वह समाज, परिवार या नैतिकता से टकराता हो — तो वही तुम्हारी सफलता है। नतीजतन, युवा मन भटकाव, तनाव, अकेलेपन और भावनात्मक अस्थिरता का शिकार होता जा रहा है, लेकिन उसे यह अहसास नहीं हो रहा कि वह किस दिशा में बढ़ रहा है।
यह स्थिति केवल आलोचना का नहीं, चेतना का विषय है। हमें यह समझना होगा कि स्वतंत्रता का अर्थ स्वेच्छाचार नहीं होता। भारत की सांस्कृतिक परंपरा में स्वतंत्रता को हमेशा कर्तव्य, आत्मनियंत्रण और लोककल्याण के साथ जोड़ा गया है। भगवद्गीता में भी यही शिक्षा दी गई है कि कर्म करो, परन्तु धर्म और विवेक के साथ। स्वतंत्रता तब ही सार्थक है जब उसमें संयम हो, जब वह दूसरों के अधिकारों और समाज की मर्यादा के साथ तालमेल में हो।
इस समस्या का समाधान भी हमारे ही पास है, यदि हम इसे देखना चाहें। शिक्षा व्यवस्था को केवल जानकारी देने वाली प्रणाली न बनाकर चरित्र निर्माण की प्रयोगशाला बनाना होगा। परिवारों को बच्चों के साथ केवल आदेशात्मक संबंध नहीं, संवादशील और सहृदय रिश्ता बनाना होगा। युवाओं को ऐसे प्रेरणास्रोत दिखाने होंगे जो आधुनिक भी हों और मूल्यनिष्ठ भी — जैसे डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, स्वामी विवेकानंद, या आज के कई युवा सामाजिक नवाचारक जो परंपरा और आधुनिकता का अद्भुत संतुलन बनाते हैं। साथ ही, ध्यान, योग, सत्संग और आध्यात्मिक साधना के माध्यम से भी युवा चेतना को आत्मावलोकन और संयम की ओर प्रेरित किया जा सकता है।
निष्कर्ष यही है कि आज का युवा यदि स्वतंत्रता को मर्यादा, उत्तरदायित्व और विवेक के साथ जीना सीख ले, तो वह न केवल अपने जीवन को महान बना सकता है, बल्कि भारत को एक संस्कारित, सशक्त और जागरूक राष्ट्र के रूप में पुनः प्रतिष्ठित कर सकता है। आज आवश्यकता इस बात की नहीं है कि हम युवाओं को रोकें, बल्कि यह कि हम उन्हें दिशा दें। क्योंकि स्वतंत्रता और संस्कार — ये विरोध नहीं, बल्कि एक-दूसरे के पूरक