


करवा चौथ भारतीय संस्कृति में नारी की आस्था और अटूट प्रेम का प्रतीक पर्व है। यह वह दिन है जब स्त्रियाँ न केवल अपने पति की दीर्घायु के लिए व्रत रखती हैं, बल्कि अपने भीतर बसे नारीत्व के आत्मबल को भी जाग्रत करती हैं।
निर्जला उपवास, श्रृंगार, पूजा और चंद्रदर्शन — ये सभी इस बात के प्रतीक हैं कि नारी अपने प्रेम को साधना के स्तर तक पहुँचा सकती है।
नारी के विविध आयाम: ममता, धैर्य और सृजन का संगम
भारतीय परंपरा में नारी को केवल सौंदर्य या कोमलता का प्रतीक नहीं माना गया, बल्कि उसे शक्ति और सृजन का आधार कहा गया है।
करवा चौथ इस बहुआयामी नारीत्व को पुनः प्रतिष्ठित करता है —
ममता के रूप में वह धरती का पोषण करती है,
धैर्य के रूप में पर्वत समान अडिग रहती है,
प्रेम के रूप में वह जीवन को अर्थ देती है,
और संवेदना के रूप में समाज में सौम्यता का संचार करती है।
यही कारण है कि करवा चौथ को “नारीत्व की साधना” कहा जाता है — जहाँ स्त्री अपने भीतर की देवी को नमन करती है।
परंपरा से आधुनिकता तक: बदलते समाज में करवा चौथ का अर्थ
आज जब महिलाएँ हर क्षेत्र में अपनी पहचान स्थापित कर रही हैं, तब भी करवा चौथ का आकर्षण कम नहीं हुआ।
बल्कि यह पर्व आधुनिक रिश्तों में भी भावनात्मक गहराई का प्रतीक बन गया है।
अब कई स्थानों पर पुरुष भी अपनी पत्नियों के लिए व्रत रखते हैं — जो इस परंपरा को समानता और साझे सम्मान के नए अर्थ देता है।
यह परिवर्तन बताता है कि करवा चौथ अब केवल पति-पत्नी के संबंधों तक सीमित नहीं, बल्कि संतुलन, विश्वास और परस्पर निष्ठा का उत्सव बन चुका है।
करवा चौथ: नारीत्व की अमर ज्योति
जब रात्रि में चाँद निकलता है और स्त्री अर्घ्य देती है, तब वह केवल पति के लिए नहीं, बल्कि जीवन के पूर्णत्व के लिए प्रार्थना करती है।
उस क्षण में वह श्रद्धा की सरस्वती, त्याग की सीता और बल की पार्वती बन जाती है।
करवा चौथ इस बात की याद दिलाता है कि —
“नारी केवल एक संबंध नहीं निभाती, वह प्रेम का ब्रह्मांड रचती है।”
नारीत्व का शाश्वत उत्सव
करवा चौथ नारी के भीतर बसे प्रेम, त्याग और आत्मबल का उत्सव है।
यह पर्व हमें बताता है कि सभ्यता तभी जीवित रह सकती है जब नारी के भीतर श्रद्धा और करुणा की ज्योति प्रज्वलित रहे।
आधुनिकता के बीच यह व्रत भारतीय नारी की पहचान बनकर आज भी कहता है —
“करवा चौथ नारी की पूजा नहीं, नारीत्व की प्रतिष्ठा है।”