शरद पूर्णिमा : चंद्र की पूर्णता और आत्मप्रकाश का उत्सव
हिंदू पंचांग के अनुसार आश्विन मास की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहा जाता है। यह वह रात्रि होती है जब चंद्रमा अपनी सम्पूर्ण कलाओं के साथ धरती पर अमृत बरसाता है। इस दिन को कोजागरी पूर्णिमा, रास पूर्णिमा और कौमुदी पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है।
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Sanjay Purohit
Created AT: 05 अक्टूबर 2025
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हिंदू पंचांग के अनुसार आश्विन मास की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहा जाता है। यह वह रात्रि होती है जब चंद्रमा अपनी सम्पूर्ण कलाओं के साथ धरती पर अमृत बरसाता है। इस दिन को कोजागरी पूर्णिमा, रास पूर्णिमा और कौमुदी पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। यह पर्व केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित नहीं, बल्कि प्रकृति, अध्यात्म और दर्शन—तीनों स्तरों पर गहरा अर्थ समेटे हुए है।

धार्मिक दृष्टि से

शास्त्रों के अनुसार शरद पूर्णिमा की रात भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रजभूमि में महान रासलीला का आयोजन किया था। कहा जाता है कि उस दिव्य रास में स्वयं समय भी थम गया था और सम्पूर्ण ब्रह्मांड संगीत, प्रेम और भक्ति की तरंगों में डूब गया था। इसी कारण इसे रास पूर्णिमा भी कहा जाता है।

इस दिन लक्ष्मी पूजन का विशेष विधान है। कोजागरी व्रत करने वाले रात्रि में जागरण कर चंद्रमा को अर्घ्य अर्पित करते हैं। मान्यता है कि इस रात माँ लक्ष्मी धरती पर भ्रमण करती हैं और पूछती हैं — “को जागर्ति?” अर्थात “कौन जाग रहा है?” जो व्यक्ति इस रात्रि को जागरण करता है और सत्वभाव से पूजा करता है, उस पर देवी लक्ष्मी की विशेष कृपा बरसती है।

प्राकृतिक और वैज्ञानिक दृष्टि से

शरद ऋतु का यह समय प्रकृति की संतुलित अवस्था का प्रतीक होता है। वर्षा ऋतु की आर्द्रता समाप्त हो जाती है और वातावरण में स्वच्छता एवं पारदर्शिता का संचार होता है। इस समय चंद्रमा की किरणें वातावरण में अमृततुल्य ऊर्जा का संचार करती हैं।

वैज्ञानिक दृष्टि से, शरद पूर्णिमा की रात में चंद्रकिरणों में कैल्शियम और सकारात्मक सूक्ष्म ऊर्जा का प्रभाव अधिक होता है। इसीलिए परंपरा है कि इस दिन दूध और चावल की खीर बनाकर खुले आकाश में चंद्रमा की रोशनी में रखी जाती है। यह खीर उन चंद्रकिरणों की ऊर्जा को ग्रहण करती है और अगली सुबह अमृतरस के समान सेवन की जाती है, जिससे शरीर में शीतलता, ऊर्जा और मन में संतुलन आता है।

आध्यात्मिक दृष्टि से

पूर्णिमा का चंद्रमा मन का प्रतीक माना गया है — क्योंकि मन भी प्रकाश और शांति दोनों का वाहक है। शरद पूर्णिमा वह रात्रि है जब साधक अपने मन को पूर्णता और स्थिरता की ओर ले जा सकता है। इस दिन की गई साधना, ध्यान या जप सामान्य दिनों की तुलना में कई गुना फल देती है।

कई साधक इस रात को मौन व्रत, ध्यान और जप के साथ बिताते हैं। गायत्री मंत्र, श्रीसूक्त या लक्ष्मी मंत्र का जप करने से मन और आत्मा में दिव्यता का संचार होता है। चंद्रमा की शीतल किरणें साधना को स्थिरता और शांति प्रदान करती हैं — जैसे आकाश में पूर्ण चंद्रमा अंधकार को मिटा देता है, वैसे ही साधक का अंतर्मन भी शुद्ध होकर दिव्य ज्योति से भर उठता है।

दार्शनिक दृष्टिकोण

शरद पूर्णिमा केवल एक तिथि नहीं, बल्कि “पूर्णता” का प्रतीक है। यह जीवन के उस बिंदु की याद दिलाती है जहाँ अपूर्णता से पूर्णता की यात्रा संपन्न होती है। जिस तरह चंद्रमा अमावस्या से पूर्णिमा तक क्रमशः बढ़ता है, उसी प्रकार साधक भी अज्ञान से ज्ञान, विकार से विचार और अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर होता है।

दर्शन की दृष्टि से यह रात बताती है कि “पूर्णता बाहरी नहीं, आंतरिक है।” जब मन का चंद्रमा निर्मल होता है, तभी जीवन में सच्ची शांति उतरती है। शरद पूर्णिमा हमें यह सिखाती है कि सच्चा प्रकाश बाहरी चंद्र नहीं, बल्कि हमारे अंतरचंद्र — यानी आत्मचेतना में बसता है।

शरद पूर्णिमा प्रकृति और चेतना के सामंजस्य का पर्व है। यह वह क्षण है जब ब्रह्मांड, पृथ्वी और मानव-मन एक लय में कंपन करते हैं। यह रात हमें भक्ति, ध्यान, विज्ञान और दर्शन — चारों का समन्वय सिखाती है।

जैसे चंद्रमा अपनी पूर्णता से अंधकार को मिटाता है, वैसे ही हमें भी अपने भीतर के अंधकार को मिटाकर आत्मप्रकाश की ओर बढ़ना चाहिए। यही शरद पूर्णिमा का सच्चा संदेश है — पूर्णता को केवल देखो मत, उसे जियो।

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