हमारी संस्कृति इतना उदात्त है कि इसमें मनुष्य ही नहीं, बल्कि पेड़-पौधे, पशु, पक्षी, कीट-पतंग, नदियां, समंदर, धरती, आकाश, ग्रह, नक्षत्र व ऋतुएं आदि सभी को यथायोग्य स्थान एवं महत्व प्राप्त है। यहां मनुष्य केवल मनुष्य के प्रति ही स्नेह प्रकट नहीं करता, बल्कि प्रकृति को भी प्यार-सम्मान देता है। हम प्रकृति के सौंदर्य को अपने हृदय में बसाते हैं। प्रकृति तथा अदृश्य दैवीय शक्तियों के साथ अपने मन के उत्साह, हृदय के उल्लास एवं आत्मा के नवोन्मेष को बांटने का उत्सव मनाते हैं- ‘वसंत का उत्सव।’ दरअसल, वसंत प्रकृति के सौंदर्य के विस्तार की ऋतु है। माघ महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को ‘वसंत पंचमी’ के नाम से जाना जाता है। इस दिन संपूर्ण कलाओं, काव्य, वाणी, वाद्य एवं संगीत के सौंदर्य की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की उपासना भी की जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि देवी सरस्वती के अभिनंदन में प्रकृति अपना शृंगार करती है। संपूर्ण वसुधा पर वसंत छा जाता है। प्रकृति के आनंद का प्रस्फुटन इस कालखंड को ‘ऋतुराज’ बना देता है।
रज प्रधान ऋतु
वैसे तो हमारे देश में छह ऋतुएं होती हैं। ये सारी ऋतुएं महत्वपूर्ण हैं, लेकिन इनमें से शरद, वंसत और ग्रीष्म को हमारी संस्कृति में अत्यंत विशेष स्थान प्राप्त है। दरअसल, ये तीनों ही ऋतुएं प्रकृति और परमात्मा के त्रिगुणों- सत् यानी सत्व, रज एवं तम की द्योतक हैं। इनमें शरद में सत् की, वंसत में रज की और ग्रीष्म में तम की प्रधानता होती है। वसंत रज प्रधान इसलिए मानी जाती है, क्योंकि यह ऋतु प्रकृति के वैभव और शृंगार का प्रतीक है। यह किसी ‘नवयौवना’ की भांति अपने संपूर्ण वैभव एवं साज-शृंगार के साथ प्रकट होती है। वैसे, वसंत समृद्धि का प्रतीक भी है।
प्रतीक रंग पीला
दरअसल, यही वह समय है, जब शरद के तप से समृद्ध हुई प्रकृति किसी अल्हड़ नवयौवना-सी खिलखिलाती, झूमती-गाती… और वन-उपवन में वासंती बालियों, लताओं पर मदमस्त हो लहराती है। बता दें कि वसंत पंचमी से प्रारंभ होकर फागुन तक वसंत की मादकता, ऊर्जा, उसका उजास और उल्लास सब ओर कायम रहता है। जवां दिलों की धड़कन को बढ़ाने वाली और मस्ती की प्रतीक फागुन की फगुनाहट से घुल-मिलकर वसंत का सौदर्य बहुगुणित हो जाता है। गौरतलब है कि वसंत का प्रतीक रंग पीला होता है, जो वास्तव में प्रसन्नता का द्योतक है। सब तरफ, वासंती रंग में रंगी प्रकृति हंसती, मुस्कराती प्रतीत होती है। देखा जाए तो वसंत संपूर्ण प्राणी जगत् को अपने रंग में रंग डालती है।
यौवन का प्रतीक
श्रीमद्भगवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऋतुओं में मैं कुसुमाकर वसंत हूं- ‘अहम ऋतुनाम कुसुमाकर।’ मादकता, ऊर्जा, उजास, अल्हड़पन, उल्लास और यौवन से परिपूर्ण वसंत, जो मनुष्य के ही नहीं, बल्कि संपूर्ण प्राणी जगत् के नवोन्मेष की ऋतु है। वसंत नित्य-निरंतर और सदा-सर्वदा युवा रहने वाला है। बता दें कि शृंगार वसंत का स्थाई भाव है, जबकि यौवन इसकी स्थाई अवस्था है। यह यौवन का प्रतीक है।
प्रथम दिव्य प्रेम-प्रसंग की पूर्णता
वसंत ऋतु ही उस सौभाग्यशाली कालखंड का नेतृत्व करती है, जिसमें भगवान शिव और माता पार्वती की दिव्य प्रेम कथा, जो कि इस सृष्टि का प्रथम प्रेम-प्रसंग भी है, पूर्णता को पाती है। कथा है कि कामदेव ने भगवान शिव की समाधि भंग करने के लिए वसंत के ही कोमल पुष्पों से सजे तीर का प्रयोग किया था।
शास्त्रों में वसंत
वसंत साहित्यकारों, कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों और गीतकारों की प्रिय ऋतु है। यही कारण है कि इसका वर्णन-चित्रण प्रायः प्रत्येक युग और काल की रचनाओं में मिलता है। प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक काल के रचनाकारों तक में शायद ही कोई ऐसा हुआ हो, जिसे वसंत के अप्रतिम सौंदर्य, रस, रंग, रूप, गंध, स्पर्श आदि ने मुग्ध और मोहित नहीं किया हो। पुराणों, वेदों, स्मृतियों आदि धर्म ग्रंथों, भक्तकवि जयदेव के गीत गोविंद, महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण और गोस्वामी तुलसीदास के रामचरित मानस से लेकर जयशंकर प्रसाद की कामायनी समेत केशव, बिहारी एवं अन्य रीति कालीन कवियों की रचनाओं में वसंत के सौंदर्य का अप्रतिम वर्णन हुआ है। वहीं, आधुनिक युग के छायावादी रचनाकारों ने अपनी महत्वपूर्ण रचनाओं में इसे यौवन की ऋतु बताया है।
वसंत का संदेश
वसंत उसके ही जीवन में घटित होता है, जो जीवन के विविध संघर्षों, प्रतिकूलताओं, विरोधाभासों और अंधकारों पर विजय प्राप्त करता है। भगवान शिव के जीवन से प्रेरणा ली जा सकती है, जहां प्रधानता मन के बसंत की है।