


आध्यात्मिक दृष्टि से मन वह माध्यम है, जिसके द्वारा आत्मा संसार से संबंध स्थापित करती है। यह न तो पूर्णतः शरीर है, न ही पूर्णतः आत्मा—बल्कि इन दोनों के बीच की एक सूक्ष्म सत्ता है। मन ही वह उपकरण है जो आत्मा को संसारिक अनुभव देता है। जब मन शांत और शुद्ध होता है, तब आत्मा अपनी दिव्यता को प्रकट कर सकती है।
मन की चंचलता: माया का प्रभाव
शास्त्रों में कहा गया है – "मन एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयोः" अर्थात मन ही बंधन और मुक्ति का कारण है। जब मन इंद्रियों के पीछे दौड़ता है, तब वह माया के जाल में फँस जाता है। यह चंचलता व्यक्ति को भटकाती है और आत्मिक शांति से दूर कर देती है। मन पर नियंत्रण ना होने से हम बार-बार जन्म-मरण के चक्र में फँसते हैं।
साधना में मन की भूमिका
आध्यात्मिक साधना—चाहे वह ध्यान हो, जप हो, या उपासना—सबका मूल उद्देश्य मन को एकाग्र करना है। जब साधक अपने मन को ईश्वर के स्वरूप में स्थिर करता है, तब ही सच्चा ध्यान होता है। एकाग्र और संयमित मन ही ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है। बिना मन को साधे आत्मबोध असंभव है।
मन की शुद्धि: आत्मिक विकास का आधार
मन की शुद्धि आध्यात्मिक पथ पर प्रथम और अनिवार्य चरण है। जब तक मन में वासनाएँ, राग-द्वेष और अहंकार की गंदगी है, तब तक आत्मा का प्रकाश ढका रहता है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं – "युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु, युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।" अर्थात संयमित जीवनशैली से मन की स्थिरता प्राप्त होती है, जो योग की ओर ले जाती है।
मन और भक्ति
भक्ति मार्ग में मन को भगवान के चरणों में अर्पित करना ही सर्वश्रेष्ठ साधना है। जब मन निरंतर प्रभु का स्मरण करता है, तो वह विकारों से स्वतः मुक्त हो जाता है। तुलसीदास जी ने कहा है—"मनु सुमिरि पावन नामु जपत रघुपति बिमल बिधु।" अर्थात पवित्र मन से भगवान का नाम जपना ही मुक्ति का सरल मार्ग है।
मुक्ति का द्वार: मन का लय
आध्यात्मिक यात्रा का अंतिम लक्ष्य है—मन का लय, अर्थात मन का पूर्णतः शांत हो जाना। पतंजलि योगसूत्र में वर्णन है—"योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः", यानी चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है। जब मन पूर्णतः शांत हो जाता है, तब आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित होती है—जिसे ब्रह्मानंद, समाधि या मोक्ष कहा गया है।