


भारत अपनी आज़ादी का 79वां वर्ष मना रहा है। तिरंगा लहराता है, देशभक्ति के गीत गूंजते हैं, और हर ओर गर्व की अनुभूति होती है। लेकिन इस उत्सव के शोर में एक गंभीर प्रश्न दब जाता है—क्या हमारे भीतर नागरिक कर्तव्यों का बोध धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है? क्या हम केवल अधिकारों की बात कर रहे हैं, और जिम्मेदारियों को भूलते जा रहे हैं?
स्वतंत्रता का अवमूल्यन
स्वतंत्रता केवल राजनीतिक बंधनों से मुक्ति नहीं, बल्कि यह आत्म-अनुशासन, नैतिक जिम्मेदारी और साझा मूल्यों का प्रतीक है। आज़ादी के शुरुआती दशकों में इसे राष्ट्रनिर्माण की शक्ति के रूप में देखा गया, लेकिन समय के साथ यह ‘अधिकारों की आज़ादी’ तक सीमित होती जा रही है। लोकतंत्र की ताकत केवल वोट डालने में नहीं, बल्कि सही निर्णय, ईमानदार भागीदारी और कानून के पालन में है। दुर्भाग्य से, व्यक्तिगत स्वार्थ और तात्कालिक लाभ की राजनीति ने स्वतंत्रता की मूल भावना को कमजोर कर दिया है।
विभाजनकारी राजनीति
राजनीतिक विमर्श का स्तर गिरकर व्यक्तिगत हमलों, जातीय समीकरणों और धार्मिक ध्रुवीकरण तक सिमट गया है। पार्टियां सत्ता पाने के लिए समाज को टुकड़ों में बांट रही हैं, और जनता भी इस खेल का हिस्सा बनकर अपने ही सामाजिक ताने-बाने को कमजोर कर रही है। यह विभाजन न केवल सामाजिक एकता को खत्म कर रहा है, बल्कि राष्ट्रीय प्राथमिकताओं से ध्यान भी भटका रहा है।
गैर-जिम्मेदार, खंडित और नास्तिक समाज
आज का समाज सूचना के महासागर में रहते हुए भी जिम्मेदारी के मामले में शुष्क होता जा रहा है। सोशल मीडिया पर राय व्यक्त करने को ‘कर्तव्य’ समझ लिया गया है, जबकि वास्तविक जीवन में अनुशासन, समयबद्धता, ईमानदारी और सामाजिक योगदान का स्तर गिर रहा है। सामूहिकता की जगह व्यक्तिगतता ने ले ली है, और "मुझे क्या लेना-देना" वाली सोच नागरिक चेतना को खोखला कर रही है।
देशभक्ति का अभाव
देशभक्ति अब अक्सर केवल राष्ट्रीय पर्वों पर सीमित रह गई है—कुछ घंटे का जोश, कुछ पोस्ट और फिर रोज़मर्रा की आत्म-केंद्रित दिनचर्या। कर चुराना, नियम तोड़ना, या भ्रष्टाचार में भाग लेना ‘देशभक्ति’ के विपरीत कर्म हैं, लेकिन इन पर सामूहिक नाराज़गी दुर्लभ होती जा रही है। असली देशभक्ति राष्ट्रहित को व्यक्तिगत हित से ऊपर रखने में है, न कि केवल नारों में।
नैतिक मूल्यों का क्षरण
हमारे संविधान ने हमें केवल अधिकार ही नहीं, बल्कि कर्तव्य भी दिए हैं—पर क्या हम उनका पालन कर रहे हैं? ईमानदारी, सहिष्णुता, करुणा और सेवा-भाव जैसे गुण अब ‘आदर्श’ बनकर किताबों में कैद हो रहे हैं। नैतिक पतन केवल भ्रष्टाचार या अपराध में नहीं, बल्कि उस चुप्पी में भी है, जो हम अन्याय देखकर साध लेते हैं।
स्वतंत्रता दिवस केवल उत्सव का दिन नहीं, बल्कि आत्ममंथन का अवसर भी है। हमें यह सोचना होगा कि आज़ादी हमें मिली हुई विरासत है, लेकिन इसे बनाए रखना और सार्थक करना हमारी जिम्मेदारी है। अगर नागरिक कर्तव्य-बोध का क्षरण जारी रहा, तो आने वाली पीढ़ियों के लिए स्वतंत्रता केवल इतिहास की किताबों में दर्ज एक तारीख बनकर रह जाएगी।