


स्त्री अब सिर्फ़ सामाजिक मर्यादाओं की संरक्षिका नहीं, बल्कि उन दीवारों को तोड़ने वाली शक्ति बन चुकी है, जिन्हें सदियों से उसके चारों ओर खड़ा किया गया था। उसकी यह दस्तक अब धीमी नहीं, बल्कि बदलाव की आहट बन चुकी है।
भारतीय समाज में स्त्री को शक्ति, देवी, ममता और त्याग का प्रतीक माना गया है, लेकिन जब वही स्त्री अपनी पहचान, अधिकार और स्वतंत्रता की बात करती है, तो उसे विरोध का सामना करना पड़ता है। यह विरोध कोई नया नहीं, बल्कि वर्षों पुरानी सोच का परिणाम है जिसमें स्त्री की भूमिका केवल ‘सहने’ और ‘पालन करने’ तक सीमित रखी गई।
परंतु स्त्री सशक्तिकरण का इतिहास भारत में आधुनिक आंदोलनों से कहीं पहले शुरू हो चुका था। वैदिक काल की विदुषी महिलाएँ — जैसे गार्गी और मैत्रेयी — इसका प्रमाण हैं। गार्गी ने याज्ञवल्क्य जैसे महान ऋषि से ब्रह्म ज्ञान पर तर्क-वितर्क किया, तो मैत्रेयी ने स्पष्ट कहा कि "धन से नहीं, आत्मज्ञान से अमरता संभव है।" यह सिद्ध करता है कि स्त्री की बौद्धिक भूमिका भारतीय परंपरा में कभी उपेक्षित नहीं रही, परंतु बाद के कालखंडों में उसे सोची-समझी पितृसत्तात्मक संरचना में पीछे धकेल दिया गया।
अब समय फिर बदल रहा है। यह बदलाव अचानक नहीं आया, बल्कि यह स्त्री की अंदरूनी चेतना, शिक्षा, संघर्ष और आत्मसम्मान के जागरण का परिणाम है। आज की स्त्री आत्मनिर्भर भी है और आत्मसजग भी। वह अब केवल घर की चारदीवारी में सीमित नहीं रहना चाहती, वह निर्णय लेने वाले दरवाज़ों तक पहुँच चुकी है — और दस्तक दे रही है।
हालाँकि यह यात्रा सरल नहीं रही। जब स्त्री सवाल करने लगी, तब समाज ने उसे ‘संस्कृति विरोधी’ कहा। जब वह अपने हक़ के लिए खड़ी हुई, तो उस पर ‘चरित्रहीनता’ के आरोप लगे। उसकी आवाज़ को दबाने के लिए कभी धर्म का सहारा लिया गया, तो कभी परंपरा का। लेकिन अब वह चुप नहीं है — और सबसे बड़ा परिवर्तन यही है।
आज समाज के हर क्षेत्र में उसकी भागीदारी बढ़ी है — शिक्षा, राजनीति, विज्ञान, मीडिया, कला, न्यायपालिका या स्टार्टअप्स, हर जगह उसका परचम लहरा रहा है। फिर भी आज़ादी के इस रास्ते में चुनौतियाँ कम नहीं हैं। कार्यस्थलों पर असमानता, घरेलू हिंसा, मानसिक उत्पीड़न और सामाजिक आलोचना अब भी उसकी राह रोकते हैं। लेकिन अब वह रुकने के लिए नहीं बनी।
स्त्री का यह उभार केवल एक वर्ग की आवाज़ नहीं, बल्कि पूरे समाज के विकास की दिशा है। यह बदलाव केवल कानूनों से नहीं आएगा, जब तक समाज स्त्री की सोच को बराबरी की नज़र से देखना नहीं सीखता। अब समय आ गया है कि हम पूजा करने से पहले सुनना सीखें, चुप करवाने से पहले समझें कि वह क्या कह रही है।
स्त्री अब प्रतीक्षा में नहीं है। वह परिवर्तन को अपने भीतर से जन्म दे रही है। उसकी यह पदचाप इतिहास की धड़कन है — जो बता रही है कि अब वह वहाँ पहुँच चुकी है, जहाँ निर्णय लिए जाते हैं। यह दस्तक दीवारों पर नहीं, समाज की आत्मा पर है। और जब स्त्री की आवाज़ गूंजती है, तो पूरा समाज बदलता है।