आत्मसाक्षात्कार का मार्ग ही साधना का मार्ग और अध्यात्म का मार्ग कहा जाता है। ये आत्मसाक्षात्कार क्या है? शास्त्र कहते हैं कि प्रत्येक जीव में जो चेतना है वह उसका आत्म तत्व ही है। ऋषि वशिष्ठ ने जीवों की चेतना को ही आत्मा कहकर व्याख्यायित किया है। ये आत्मा ही है जो सदा सर्वदा से शास्त्रों में वर्णित होती आई है। इस आत्म तत्व के इर्द-गिर्द ही सभी धर्मों के शास्त्र रहते आए हैं। सनातन परम्परा में भी आत्मशुद्धि के उपायों का वर्णन मिलता है। ऋषि, महर्षि, साधु-संत और परमहंस सब इस आत्म तत्व के इर्द-गिर्द ही खड़े दिखाई देते हैं। आत्म प्रकाश की भी बात उठती है।
आत्म प्रकाश के विषय में भ्रम की स्थिति रहती है। आत्मा को व्यक्ति साधना से प्रकाशित करता है या आत्मा सदा सवर्दा से स्वयं ही प्रकाशित होती है? ये प्रश्न भटकाता है। आत्मा हर व्यक्ति में निवास करती है, हर जीव में निवास करती है। आत्मा प्रत्येक की अलग-अलग होती है। तो क्या प्रत्येक की आत्मा प्रकाशित नहीं होती? क्या प्रत्येक आत्मा का कोई अलग-अलग स्वरूप होता है? ये सब प्रश्न विचलन पैदा करने वाले हैं।
एक और शब्द खूब सुनाई देता है जिसे आत्मसाक्षात्कार कहते हैं? ये भी बड़ा भ्रम है। जब आत्मा हर जीव में है और साक्षात है तो फिर अपनी ही आत्मा के साक्षात्कार का विषय कैसा? ये सब आध्यात्म के उलझे सवाल लग सकते हैं। किंतु ये एक विज्ञान है जिस पर प्राचीन काल से ऋषि-मुनियों ने चिंतन किया है, मनन किया है, व्याख्याएं प्रस्तुत की हैं। आज भी इन विषयों पर चिंतन मनन और साधनाएं निरंतर हो रही हैं।
आत्मा शाश्वत है किंतु अमूर्त है। इसकी क्रियाविधि की स्पष्टता सबको सहज नहीं होती। हम जो सोचते हैं जो फैसले लेते हैं वो तो हमारे मन और बुद्धि का कार्य है। आत्मा इन निर्णयों में शामिल होती भी है या नहीं ये भी चिंतन का विषय है। शास्त्र कहते हैं कि आत्मा पर हमारे जीवन में हो रही घटना का कोई खास असर नहीं होता। क्योंकि जीवन की घटनाएं तो कर्म और काल के आधीन है। जबकि आत्मा कालजयी है।
शास्त्र जिसे अहम् ब्रह्मास्मि कहते हैं, वो भला सुख-दु:ख से कैसे प्रभावित हो सकती है। और सुख दुख भी क्या है? एक अनुभूति जैसा ही तो है। ये जो ऊपरी अनुभूति है क्या ये आत्मा की अनुभूति है? हमारे शरीर पर गर्म और ठंडा लगता है। हमारी जीभ को नमक और मीठा महसूस होता है। हमारी आंख को प्रकाश और अंधकार दिखता है। हमारे मन को अच्छा और बुरा लगता है। हमारे हित का हो तो हमें अच्छा लगता है हमारे अहित का हो तो हमें बुरा लगने लगता है। ये जो हित और अहित है क्या ये स्थाई है।
आत्मा की अपनी एक यात्रा है। शरीर की अपनी यात्रा है। मन की अपनी यात्रा है और बुद्धि की भी अपनी यात्रा है। दर्शन से दृष्टि बदल जाती है। दृष्टि के बदलते ही व्यक्ति, और व्यक्ति अपने लिए एक नई सृष्टि रचने में सक्षम है। व्यक्ति अपनी भौतिक जरूरतों को पूरा करने के लिए कर्म करता है। इस कर्म की शुद्धि का भान बिरलो को ही होता है।
शास्त्र कहते हैं ‘शरीर खलु धर्म साधनम्’ अर्थात् शरीर ही धर्म का साधन है। ये धर्म क्या है? जिसका साधन शरीर है। ये धर्म ही है जो असल आध्यात्म की तरफ ले जाता है। जैसे अग्नि का धर्म है जलाना। जब अग्नि के संसर्ग में कुछ भी आता है तो वो अपना धर्म करती है। बिना किसी भेद भाव के। वो कठोर हो तरल हो। वस्तु हो अथवा व्यक्ति हो सबको जला देती है। अग्नि का धर्म है जलाना। इसी तरह हर मनुष्य का हर व्यक्ति का भी कुछ तो मूल धर्म होता होगा। आत्मा का भी अपना धर्म जरूर होगा जिसे वो बिना किसी विवेक के करती होगी। इसी धर्म का ज्ञान करना जीवन का प्रथम लक्ष्य है।
हमें लगता है कि पूजा की पद्धतियों से व्यक्ति का धर्म तय हो जाता है। जबकि ये सत्य नहीं है। असल धर्म तो वही है जो हमारी आत्मा का धर्म है। जो हमारी आत्मा बिना किसी विवेक के फेर में पड़े निर्वाह करती है।
ये आत्मा अजर अमर हैं— श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का श्लोक 20 है, जिसमें भगवान कृष्ण कहते हैं—आत्मा न कभी जन्मती है, न मरती है, और न ही यह उत्पन्न होकर फिर होने वाली है; यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, और शरीर के नष्ट होने पर भी यह नष्ट नहीं होती।
यदि हम इस कथन को सत्य मानते हैं तो फिर हमारी यात्रा कोई इस जन्म की तो नहीं है? फिर हम इतने नये तो नहीं हैं जितना की ये शरीर है। हम तो पुरातन हैं, और जो पुरातन है क्या हम अभी तक उससे मिले ही नहीं है? अर्थात आत्म के साक्षात्कार का प्रश्न क्या है?
आत्म का साक्षात्कार उन घटनाओं के जानने से हैं, उस अनुभूति तक पहुंचने से है, जो हमारी आत्मा की आज तक की यात्रा रही है। यदि आत्मा से परिचय या साक्षात्कार का कोई लक्ष्य है तो वह अपनी आत्मा की पूर्व की यात्रा का वृत्तांत जानना ही है। जैसे वो साक्षात्कार पूरा होता था वो ऋषि वृंद त्रिकाल दर्शी हो जाते थे। आत्मा की यात्रा सतत है। अत: इसकी यात्रा का एक वृत्त होता है और यात्रा निरंतर है तो कई पड़ाव ऐसे होंगे, जो पुन:-पुन: आते होंगे। इसीलिए आत्मतत्व से भेंट होते ही पूरा मार्ग सहज हो जाता है। इसीलिए आत्मा को ब्रह्मस्वरूप कहा गया होगा- अहम् ब्रह्मास्मि।