अफगानिस्तान की पर्वत-शृंखलाओं के बीच बसा बगराम एयरबेस आज केवल एक सैन्य ठिकाना नहीं, बल्कि बदलती वैश्विक राजनीति का प्रतीक बन चुका है। कभी अमेरिकी फाइटर जेट्स की गर्जना से गूंजने वाला यह अड्डा अब शक्ति-संतुलन, कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय प्रभाव के अदृश्य खेल का केंद्र है।
जहाँ अमेरिका इसे चीन और रूस पर रणनीतिक नज़र रखने के लिए अहम मानता है, वहीं भारत इसे क्षेत्रीय स्थिरता और शांति की कसौटी के रूप में देखता है। यही भेद भारत की रणनीतिक परिपक्वता और संतुलित दृष्टि को दर्शाता है।
बगराम काबुल के उत्तर में लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह वही जगह है जहाँ से अमेरिका ने “आतंकवाद के खिलाफ युद्ध” की वैश्विक रणनीति को संचालित किया था।
आज यह ठिकाना अफगानिस्तान की सीमाओं से कहीं अधिक अर्थ रखता है — यह दक्षिण एशिया, मध्य एशिया और पश्चिम एशिया के त्रिकोण में स्थित वह बिंदु है जो तीनों क्षेत्रों की भू-राजनीति को प्रभावित कर सकता है।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का यह कथन — “We want Bagram back” — इस ठिकाने के महत्व को स्पष्ट कर देता है।
यह बयान महज़ अफगान नीति नहीं, बल्कि चीन के शिनजियांग क्षेत्र पर निगरानी, रूस की मध्य एशियाई पकड़ को सीमित करने और पाकिस्तान पर दबाव बनाए रखने की रणनीति का हिस्सा है।
बगराम एक ऐसा मंच है जहाँ हर महाशक्ति अपनी प्रभाव रेखा खींचना चाहती है — परन्तु भारत ने यहाँ “सैन्य अधिकार” नहीं, बल्कि “राजनयिक विवेक” का रास्ता चुना है।
भारत की भूमिका: विवेक, संयम और कूटनीतिक धैर्य
भारत का दृष्टिकोण इस विषय पर बिलकुल स्पष्ट है — अफगानिस्तान किसी बाहरी शक्ति की सैन्य प्रयोगशाला नहीं बनना चाहिए।
भारत ने अमेरिका के बगराम पुनः कब्जे के प्रस्ताव पर वही रुख अपनाया जो क्षेत्रीय स्थिरता के हित में था। पाकिस्तान, चीन और यहाँ तक कि तालिबान के साथ भी भारत ने यह कहा कि अफगानिस्तान की भूमि पर किसी बाहरी देश की सैन्य गतिविधियाँ पूरे क्षेत्र के लिए अस्थिरता का कारण बनेंगी।
यह नीति भारत की कूटनीतिक परिपक्वता का परिचायक है।
भारत ने सदैव “Presence without Provocation” यानी उपस्थिति बिना उत्तेजना की नीति अपनाई है।
अफगानिस्तान में भारत की भूमिका हमेशा मानवीय सहयोग, विकास परियोजनाओं और पुनर्निर्माण पर आधारित रही है — चाहे वह सलमा बाँध हो, संसद भवन का निर्माण हो या अस्पतालों का पुनर्विकास।
भारत यह भलीभांति जानता है कि सैन्य हस्तक्षेप क्षणिक लाभ दे सकता है, पर स्थिरता और सम्मान केवल विकास और संवाद से ही सुनिश्चित होते हैं।
वैश्विक परिदृश्य: नई शक्ति रेखाएँ और सुरक्षा संतुलन
बगराम अब “भू-राजनीति का बैरोमीटर” बन गया है।
यदि अमेरिका इस पर नियंत्रण चाहता है, तो इसका सीधा प्रभाव चीन, रूस और ईरान पर पड़ेगा — और इससे एशिया में नई शक्ति रेखाएँ खिंच जाएँगी।
दूसरी ओर, यदि चीन या पाकिस्तान के प्रभाव में यह अड्डा आता है, तो भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमाएँ दबाव में आ सकती हैं।
अफगानिस्तान की आंतरिक स्थिति, तालिबान की सत्ता और उग्रपंथी समूहों की उपस्थिति इस ठिकाने को स्थायी नियंत्रण से दूर रखती है। ऐसे में भारत के लिए यह चुनौती है कि वह न केवल अपनी सुरक्षा को सुनिश्चित करे, बल्कि इस भूभाग को सहयोग की भूमि में बदलने की दिशा में योगदान दे।
इस पूरे समीकरण में भारत की भूमिका संतुलन के ध्रुव की है — न वह सैन्य प्रतिद्वंद्विता में उतरना चाहता है, न ही अपने प्रभाव से पीछे हटना।
भारत के लिए रास्ता: शक्ति नहीं, शांति से प्रभाव
भारत के सामने इस समय अवसर है कि वह “सैन्य प्रभुत्व” नहीं, बल्कि “नैतिक नेतृत्व” के माध्यम से इस क्षेत्र में अपनी भूमिका सशक्त करे।
अफगानिस्तान में भारत को अपने वही पारंपरिक साधन प्रयोग में लाने चाहिए जो उसे विशिष्ट बनाते हैं —
शिक्षा, स्वास्थ्य, ऊर्जा, संस्कृति और नागरिक सशक्तिकरण।
भारत की “कनेक्टिविटी डिप्लोमेसी” — जैसे ईरान के चाबहार पोर्ट से लेकर मध्य एशिया तक व्यापारिक गलियारे — इस रणनीति का हिस्सा बन सकते हैं।
तालिबान शासन के साथ व्यावहारिक संवाद और सीमित सहयोग भारत की सुरक्षा दृष्टि से आवश्यक है ताकि कोई तीसरी शक्ति उस रिक्तता को न भर सके जो भारत के हितों को नुकसान पहुँचा सकती है।
भारत की नीति स्पष्ट है — “Power with Purpose, Not Possession.”
यानि शक्ति हो, पर स्वामित्व का लालच न हो; प्रभाव हो, पर प्रभुत्व नहीं।
बगराम एयरबेस आज सिर्फ अफगानिस्तान का नहीं, बल्कि पूरे एशिया का “सुरक्षा केंद्र” बन गया है।
यह वह जगह है जहाँ अमेरिका, चीन, रूस और पाकिस्तान की नीतियाँ टकराती हैं, और भारत का विवेक उन्हें संतुलित करने की कोशिश करता है।
भारत के लिए यह क्षण कूटनीतिक परीक्षा का है —
जहाँ उसे यह साबित करना है कि शक्ति का सर्वोच्च रूप संयम है, और नेतृत्व का सर्वोच्च आधार शांति और संतुलन।
यदि भारत इस नीति पर दृढ़ बना रहता है, तो आने वाले वर्षों में वह केवल दक्षिण एशिया का नहीं, बल्कि एशिया के नैतिक नेतृत्व का केंद्र बन सकता है।