


दीपावली, जिसे अंधकार पर प्रकाश की विजय का उत्सव कहा गया है, उसकी वास्तविक शुरुआत धनतेरस से होती है। यह केवल उत्सव का पहला दिन नहीं, बल्कि आध्यात्मिक आलोक का उद्घाटन भी है। धनतेरस, या धनत्रयोदशी, कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को मनाई जाती है — वह क्षण जब जीवन में स्वास्थ्य, समृद्धि और आध्यात्मिक संतुलन का प्रथम दीप प्रज्वलित होता है।
वैदिक परंपरा के अनुसार, इस दिन भगवान धन्वंतरि समुद्र मंथन से अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे। भगवान विष्णु का यह अवतार आरोग्य और आयु का अधिपति माना गया। इसलिए इस दिन दीपक जलाना केवल शुभता का संकेत नहीं, बल्कि यह अपने भीतर की नकारात्मकता, रोग और दुर्भावनाओं के अंधकार को मिटाने का प्रतीक है। यह वह क्षण है जब सच्चे अर्थों में दीपावली की आत्मा प्रकट होती है — “अंधकार से प्रकाश की ओर” की यात्रा की शुरुआत।
धनतेरस शब्द में “धन” केवल धन-संपत्ति का नहीं, बल्कि धन्य जीवन के सभी आयामों — मन, शरीर और आत्मा — का बोध है। वैदिक दृष्टि कहती है कि जो व्यक्ति इस दिन सच्ची भावना से दीप प्रज्वलित करता है, वह अपने भीतर छिपे आलोक को जाग्रत करता है। यही कारण है कि यह तिथि भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की समृद्धि के लिए अत्यंत शुभ मानी गई है।
लोक परंपरा में इस दिन सोना, चाँदी, बर्तन या नए वस्त्र खरीदना शुभ माना गया है। यह केवल लेन-देन की परंपरा नहीं, बल्कि सृजन और नवीन ऊर्जा के स्वागत का प्रतीक है। इस दिन किया गया पूजन और दान व्यक्ति के जीवन में आरोग्य और ऐश्वर्य दोनों का प्रवेश कराता है। कहा जाता है — “धन्वंतरि की कृपा बिना लक्ष्मी स्थिर नहीं रहती,” इसलिए दीपावली की शुरुआत आरोग्य के इस दिवस से करना जीवन की समग्र समृद्धि का आमंत्रण है।
अतः धनतेरस वह दिव्य बिंदु है जहाँ से दीपावली की ज्योति यात्रा आरंभ होती है — एक दीप शरीर के आरोग्य के लिए, दूसरा मन की शांति के लिए, और तीसरा आत्मा के ज्ञान के लिए। जब धनतेरस का पहला दीप जलता है, तब वास्तव में अंधकार पर प्रकाश की विजय यात्रा प्रारंभ होती है, जो अमावस्या की पावन रात में चरम आलोक बनकर फैल जाती है।