माता के हर मंदिर के पीछे कोई न कोई मान्यता, कोई कहानी, कोई रहस्य अवश्य होता है। ऐसा ही एक रहस्य जुड़ा है बुंदेलखंड़ की अबार माता के मंदिर से जो बंडा क्षेत्र में सागर-छतरपुर की सीमा पर स्थित है। अबार माता का मंदिर अपने आप में बेहद अनूठा है। साढ़े आठ सौ बर्ष पुराने इस मंदिर में लोगों की आस्था इतनी गहरी है कि वे मानते हैं कि यहां आने भर से सारे कलेश दूर हो जाते हैं। इस मंदिर में एक चट्टान मौजूद है, जिसके बारे में कहा जाता है कि कुछ साल पहले यह कुछ फीट की थी, लेकिन धीरे-धीरे इसका आकार बढ़ते-बढ़ते आज तकरीबन सत्तर फीट तक पहुंच गया है। मान्यता है कि इस चट्टान को छूने से ही नि: संतान को संतान की प्राप्ति हो जाती है। लोग इस चट्टान का जुड़ाव भगवान शिव से मानते हैं क्योंकि कहा जाता है कि, हर महाशिवरात्रि के दिन इसकी लंबाई एक तिल के बराबर बढ़ जाती हैं।
आल्हा-ऊदल ने करवाया था मंदिर का निर्माण
बुंदेलखंड और वीरों को सदी यानी 12वीं सदी में पृथ्वीराज चौहान को छकाने वाले आल्हा और ऊदल की कहानी इस मंदिर की स्थापना से जुड़ी हुई है। यहां चैत्र नवरात्र में माता की कृपा पाने लोगों का तांता लगता है। बुंदेलखंड के वीर आल्हा-ऊदल ने इस मंदिर को बनवाया था। करीब साढ़े 800 साल पहले वे महोबा से माधौगढ़ जा रहे थे। पहुंचने में देर यानि बुंदेली भाषा में अबेर हो जाने पर उन्होंने यहीं बियाबान जंगल में ही अपना डेरा डाल दिया। रात में जब उन्होंने अपनी आराध्य देवी का आह्वान किया तो मां ने उन्हें दर्शन देकर इसी स्थान पर मंदिर बनवाने की प्रेरणा दी। माता की प्रेरणा से उन्होंने यहां चट्टान पर मां की मढ़िया बनावा कर प्रतिमा स्थापित कराई। तभी से यहां मां को अबार माता के नाम जाना जाने लगा।
डकैतों की माता का मंदिर, यह है रहस्य
इस मंदिर में डकैतों की माता का मंदिर भी कहा जाता है। बुंदेलखंड के दस्यु युग में दुर्गांत और खूखार डांकू इसी मंदिर में माता के दरबार में हाजरी लगाते थे। जिसमें पूजा बब्बा, मूरत सिंह, देवी सिंह जैसे डकैतों से लेकर ग्वालियर, झांसी के डकैत भी यहां दर्शन करने आते थे। तीन जिलों की सीमाओं से लगा घने जंगली पहाड़ों में बसा यह मंदिर उनके लिए वाकई एक सुरक्षित स्थान रहा होगा जो इस स्थान को उनके अनुकूल तार्किक रूप से सही माना जा सकता है। चट्टान से बने इस मंदिर की संरचना भी बहुत रोचक और अनोखी है, यहां कोई छिपा हो तो उसे ढूंढना मुश्किल होगा।
प्राचीन समय में चट्टान के ऊपर थी मठिया
प्राचीन समय में चट्टान के ऊपर मठिया बनाई गई थी जिसमें कभी अबार माता की मूर्ति हुआ करती थी। अब इस मूर्ति को वहीं से निकालकर नीचे स्थापित कर दिया गया है और एक मंदिर बना दिया गया है, माना ये भी जाता है कि मठिया बनने से पहले ये चट्टान बहुत तेजी से बढ़ रही थी, लेकिन अब ये सिर्फ एक तिल के बराबर ही बढ़ती है। आस्था है कि इस चट्टान को छूने से भक्तों की मुराद पूरी होती है, लेकिन इस चट्टान पर हाथ रखने का एक अपना ही अलग तरीका है, पहले हाथ को उल्टा रखकर मन्नत मांगो और पूरी हो जाने पर सीधे रखकर मां को धन्यवाद दो।
50 सीढ़िया चढ़ते ही मातारानी के दर्शन
अबार माता के मंदिर तक पहुंचने के लिए आपको लगभग 50 सीढ़ियां चढ़नी होती हैं। जैसे ही मातारानी के दर्शन करके आप घूमेंगे, तो मंदिर के चारों तरफ कई गुफाएं हैं। मंदिर से सीधे एक दूसरी चट्टान पर एक छोटा मंदिर है, एक-दूसरे चट्टान ने संपर्क न होने के कारण सभी लोग नहीं जा पाते है। इस मंदिर तक जाने के लिए या तो लगातार लगे हुए पेड़ से जाना होता है, या फिर रस्सी डालकर ही एक-दूसरे मंदिर पर पहुंचा जा सकता है। नवरात्रि के दिनों में दूर-दूर से यहां श्रद्धालु मां के दर्शन के लिए आते हैं। यहां पर प्रत्येक वैशाख माह में एक विशाल मेला लगता है जो 15 दिनों तक चलता है।